दस्तक दे रहा है हजारों साल में दिखने वाला धूमकेतु ‘निओवाइज’                                                                 

      

17 जुलाई 2020 को माउंट वाशिंगटन पर ‘निओवाइज’ धूमकेतु (स्रोतः theguardian.com)

र्ष 2020 में चंद्र ग्रहण एवं सूर्य ग्रहण की घटनाओं को देखने के बाद दुनिया फिर से एक महत्वपूर्ण खगोलीय घटना की गवाह बनने जा रही है। एक ऐसी खगोलीय घटना, जिसमें ‘निओवाइज’ नामक धूमकेतु हजारों सालों में एक बार दिखाई देता है। ‘निओवाइज’ धूमकेतु एक बार फिर से दस्तक दे रहा है और पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में स्थित देशों में इस साल जून के प्रारंभ से ही दिखने लगा है। यह एक ऐसी दुर्लभ आकाशीय घटना है जिस पर दुनियाभर के खगोल-विज्ञानियों की नजरें गड़ी हुई हैं। पिछले लगभग 22-23 वर्षों के अंतराल के बाद भारत में भी यह धूमकेतु जुलाई के दूसरे सप्ताह से अगस्त के प्रथम सप्ताह तक लगभग 20 दिनों के लिए दिखाई देगा।

वहमारे सौर-मंडल की बाहरी कक्षा में लाखों धूमकेतु विचरण करते रहते हैं। इनमें से अभी तक 6,620 से अधिक धूमकेतु खोजे जा चुके हैं। धूमकेतु अपने अनूठेपन के लिए जाने जाते हैं, जो लंबे अंतराल एवं सीमित अवधि के लिए दिखाई देते हैं। धूमकेतु का यही अनूठापन खगोल-विज्ञानीयों, भू-वैज्ञानिकों और आकाशीय घटनाओं में रुचि रखने वाले आम लोगों को भी आकर्षित करता है। धूमकेतु सर्वाधिक आकर्षण, शोध एवं वैज्ञानिक चर्चा का विषय बन जाते हैं जब ये पृथ्वी के अत्यधिक निकट होते हैं और नग्न आँखों से दिखाई देने लगते हैं।

विभिन्न ग्रह, ग्रहों के कई चंद्रमा यानी उपग्रह, उल्कापिंड, क्षुद्रग्रह आदि जो हमारे सौर-मंडल में हैं, अंडाकार कक्षा में सूर्य की परिक्रमा करते हैं। लगभग 460 करोड़ वर्ष पूर्व हमारे सौर-मंडल के सबसे अंतिम सदस्य अर्थात नेपच्यून से परे, धूमकेतु क्षेत्र - ‘कुईपर बेल्ट’ तथा ‘ओर्ट क्लाउड’ भी अस्तित्व में आये। इस कारण धूमकेतु भी हमारे सौर-मंडल के सदस्य हैं तथा ग्रहों की भांति सूर्य का चक्कर लगाते हैं। लेकिन धूमकेतु; ग्रहों, क्षुद्रग्रहों, उल्कापिंडों से पूरी तरह भिन्न होते हैं। धूमकेतुओं का परिक्रमण-पथ अति-दीर्घवृत्तीय होता है, अर्थात जब कोई धूमकेतु सूर्य के निकट आ जाता है तब उसकी कक्षा का दूसरा सिरा, सौर-मंडल के बाहरी किनारे से भी अत्यंत दूर होता है।



सामान्य धूमकेतु की पूँछ का एफसीसी (बाएं) तथा सोडियम अणुओं की अधिकता दर्शाता 'निओवाइज' धूमकेतु की पूँछ का एफसीसी (दाएं)। (स्रोत: स्पेस.काॅम)

कई धूमकेतु सूर्य के अत्यंत निकट पहुँच जाने के कारण विखंडित व वाष्पित होकर नष्ट हो जाते हैं। इनका परिक्रमण-क्रम अव्यवस्थित तथा प्रचलन की दिशा भी अनियमित अर्थात हमेशा एक जैसी नहीं रहती। इस कारण, धूमकेतुओं को सूर्य की परिक्रमा करने में कुछ वर्षों से लेकर सैकड़ों वर्ष लग जाते हैं तथा कुछ धूमकेतु कई हजार वर्षों में एक बार ही दिखाई देते हैं। ये कुछ समय (दिनों) के लिये ही नज़र आते हैं और धीरे-धीरे पृथ्वी व सूर्य से दूर होते हुए अंत में ओझल हो जाते हैं।

हैली, जो आवधिक धूमकेतु (Periodic Comet) का उदाहरण है, जिसका सर्वाधिक एवं विस्तार से अध्ययन किया गया है, प्रत्येक 75-76 वर्ष के अंतराल पर दिखाई देता है। 20वीं शताब्दी में यह केवल दो बार वर्ष 1910 एवं 1986 में दिखाई दिया था। वैज्ञानिकों का मानना है कि 21वीं शताब्दी में इसके केवल एक बार वर्ष 2061 में दिखाई पड़ने की संभावना है। ऐसा माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति कुईपर बेल्ट में हुई है। हेल-बोप, एक गैर-आवधिक धूमकेतु (Non-Periodic Comet) का उदाहरण है, जो असामान्य रूप से हैली धूमकेतु से 1000 गुना अधिक चमकदार था, जो वर्ष 1997 में देखा गया था। लेकिन अगामी कम से कम 2000 वर्ष से पहले इसके दोबारा दिखाई देने की कोई संभावना नहीं है। संभवतः यह ओर्ट क्लाउड में विचरण करता है।

सौर-मंडल में सूर्य से अत्यंत दूर होने के कारण धूमकेतु ठंडे, गहरे रंग तथा विभिन्न आकृतियों के ब्रह्मांडीय गोलाकार पिंडों के रूप में होते हैं। ये पिंड शैल एवं धूल कणों, जमी हुई एवं आयनीकृत मीथेन, अमोनिया, कार्बन डाईऑक्साइड आदि गैसों एवं बर्फ से मिलकर बने होते हैं। भ्रमण करते हुए ये बर्फीले-गोलाकार (स्नो-बॉल्स धूमकेतु-पिंड जब सूर्य के निकट पहुँचते हैं तो इनका अग्रभाग (कोमा), जो गैसीय आवरण लिये होता है, उच्च गति तथा सूर्य के प्रकाश के परावर्तन से अत्यधिक चमकीला दिखाई देने लगता है। शीर्ष भाग के ठीक पीछे धूमकेतु का मध्य भाग जो ‘केंद्रक’ (Nucleus) कहलाता है, इसमें चमकदार शैल-धूल कणों तथा विभिन्न द्रवित गैसों का मिश्रण रहता है। धूमकेतु की अत्यधिक गति तथा सूर्य के निकट उच्चतम तापमान के कारण धूमकेतु-पिंड गरम हो जाते हैं। इनमें उपस्थित गैसें, धूल एवं बर्फ कण द्रवित होने लगते हैं तथा धात्विक अणुओं एवं गैसों के वाष्पन एवं प्रकाश के परावर्तन से, चमकीला पश्च भाग ‘पूँछ’ का आकार ले लेता है, इस कारण ये ‘पुच्छल तारे’ भी कहलाते हैं। यह ‘पूँछ’ हमेंशा सूर्य की विपरीत दिशा में ही होती है।

धूल कणों तथा गैसों के असामान्य संयोजन के कारण कुछ धूमकेतु सामान्य से कई गुना अधिक चमकदार एवं कई लाख किलोमीटर लंबे होते है। इस कारण वे पृथ्वी से लाखों किलोमीटर दूर होने के बावजूद नग्न आँखों से स्पष्ट दिखाई देते हैं। अमेरिकी अंतरिक्ष ऐजेंसी ‘नासा’ के खगोलविदों द्वारा स्पेस टेलिस्कोप, जो केवल उल्कापिंडों, क्षुद्रग्रहों तथा धूमकेतुओं का ही अध्ययन करता है, द्वारा हाल में 27 मार्च 2020 को ‘निओवाइज’ धूमकेतु को खोजा गया है।


नासा का स्पेस टेलिस्कोप जिसने ‘निओवाइज’ को खोजा (स्रोतः Nasa)

‘निओवाइज’ धूमकेतु एक बार फिर से दस्तक दे रहा है और पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में स्थित देशों में इस साल जून के प्रारंभ से ही दिखने लगा है। यह एक ऐसी दुर्लभ आकाशीय घटना है जिस पर दुनियाभर के खगोल-विज्ञानियों की नजरें गड़ी हुई हैं।

अधिकांश धूमकेतुओं को उनके खोजकर्ताओं के नाम से जाना जाता रहा है। लेकिन इस धूमकेतु का नामरण व आधिकारिक क्रमांक ‘C/2020 F3’ भी अपने आप में कम दिलचस्प नहीं है। स्पेस टेलिस्कोप - Near Earth Object Wide-field Infrared Survey Explorer के आधार पर ही इसे संक्षिप्त नाम ‘NEOWISE’ दिया गया है। इसके क्रमांक की व्याख्या भी रोचक है: ‘C’ गैर-आवधिक (Non-Periodic Comet) कोमेट के लिये, 2020 खोजे गये वर्ष के लिए, ‘F’ मार्च के दूसरे पखवाड़े के लिए (जनवरी के दोनों पखवाड़े हेतु क्रमशः ‘A’ एवं ‘B’, फरवरी के दोनों पखवाड़े हेतु क्रमशः ‘C’ एवं ‘D’ तथा मार्च के दोनों पखवाड़े हेतु क्रमशः ‘E’ एवं ‘F’) एवं 3, मार्च में खोजे गये तीसरे धूमकेतु के लिये।

इस वर्ष 27 मार्च को यह धूमकेतु सूर्य से 30 करोड़ किलोमीटर तथा पृथ्वी से 25 करोड़ किलोमीटर दूर था। 3 जुलाई 2020 को यह सूर्य से करीब 4.3 करोड़ किलोमीटर दूर था, जो सूर्य से इसकी निकटतम दूरी थी। इसके बाद वापसी यात्रा में यह पृथ्वी के निकट से गुजरने के कारण उत्तरी गोलार्ध के कई देशों में प्रातः सूर्योदय से पहले दिखाई देता है। चूंकि विभिन्न ग्रह, क्षुद्रग्रह, उल्कापिंड, धूमकेतु आदि हमारे सौर-मंडल का हिस्सा हैं; अतः इनका अध्ययन, स्पेस टेलिस्कोप व अन्य माध्यमों से हमारे वैज्ञानिक निरंतर कर रहे हैं। इससे कई नई जानकारियां प्राप्त हो रहीं हैं, जिनसे सौर-मंडल के गूढ़ रहस्यों को जानने-समझने में मदद मिल रही है।


धूमकेतुओं का अति-दीर्घवृत्तीय परिक्रमण-पथ (स्रोत: myscienceschool.org)

जब कभी धूमकेतु हमारी पृथ्वी के निकट से गुजरते हैं तो वैज्ञानिक इनका अध्ययन प्रमुखता से करते हैं। धूमकेतु ‘निओवाइज’ का अध्ययन भी वैज्ञानिकों ने पहली बार किया है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि केवल अत्यधिक चमकीले धूमकेतुओं जैसे- हेल-बोप (Hale Bopp) एवं आइसॉन (ISON) आदि में सोडियम अणुओं की अधिकता थी। धूमकेतु से प्राप्त विशेष प्रकार के रंगीन छायाचित्र - फाल्स कलर कम्पोजिट्स (एफसीसी) के अध्ययन के आधार पर जेफ्री मोर्गेन्थेलर नामक वैज्ञानिक का मानना है कि ‘निओवाइज’ की पूँछ भी सोडियम अणुओं से बनी है। जिस प्रकार सोडियम वाष्प स्ट्रीट लैंप में गति करते हुए सोडियम अणुओं से एक विशेष तरंगदैधर्य युक्त पीली रोशनी प्राप्त होती है उसी प्रकार इस धूमकेतु के छायाचित्रों की पूँछ में भी पीले प्रकाश की उपस्थिति सोडियम अणुओं की अधिकता एवं सघनता को दर्शाती है। पीली रोशनी युक्त कई हजार किलोमीटर लंबी पूँछ ‘निओवाइज’ को भी दुर्लभ बनाती है।

भारत में ‘निओवाइज’ धूमकेतु 14 जुलाई से 4 अगस्त 2020 तक प्रतिदिन उत्तर-पश्चिमी आकाश में सूर्यास्त के बाद लगभग 20 से 25 मिनट की सीमित अवधि में दिखाई देगा। 22-23 जुलाई 2020 को यह पृथ्वी के सर्वाधिक निकट होगा जब इसकी धरती से दूरी लगभग 10.35 करोड़ किलोमीटर होगी। ऐसे में, इसे बिना दूरबीन के भी देखा जा सकेगा। शहरी क्षेत्रों में शाम के समय तीव्र प्रकाश तथा औद्योगिक प्रदूषण की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में, खुले मैदान वाले आकाश में इसे देखना अधिक असान होगा। हालांकि, वर्तमान में वर्षाकाल होने से बादलों की उपस्थिति के कारण धूमकेतु देखने में परेशानी हो सकती है। बेहतर अनुभव के लिये दूरबीन की सहायता ली जा सकती है। मध्य अगस्त तक यह पृथ्वी से दूर होता हुआ सौर-मंडल की सबसे बाहरी कक्षा में लौट जाएगा। इस धूमकेतु को देखना इसलिए भी दुर्लभ है क्योंकि एक बार अदृश्य हो जाने के बाद यह लगभग 6,800 वर्ष बाद ही दोबारा दिखाई देगा।


इंडिया साइंस वायर

(डॉ. नरेन्द्र जोशी एवं डॉ. विष्णु गाडगील शासकीय होलकर विज्ञान महाविद्यालय, इंदौर में प्राध्यापक हैं।)

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