उत्तराखंड में गंभीर हो रही है मिट्टी के कटाव की चुनौती                                                                 

उत्तराखंड का भूमि क्षरण मानचित्र

पनी भौगोलिक संरचना के कारण हिमालय का पारिस्थितिकी तंत्र बेहद संवेदनशील माना जाता है। भारतीय शोधकर्ताओं ने पाया है कि हिमालय क्षेत्र में स्थित राज्य उत्तराखंड का 48 प्रतिशत से अधिक हिस्सा मिट्टी के कटाव से अत्यधिक प्रभावित हो रहा है, जो स्थानीय पर्यावरण, कृषि और आजीविका के लिए एक प्रमुख चुनौती बन सकता है।

उत्तराखंड के लगभग आधे भू-भाग में भूमि क्षरण की वार्षिक दर सामान्य से कई गुना अधिक दर्ज की गई है। राज्य के करीब 48.3 प्रतिशत क्षेत्र में भूमि का क्षरण पारिस्थितिकी तंत्र के लिए निर्धारित वार्षिक सहनशीलता दर 11.2 टन प्रति हेक्टेयर से कई गुना अधिक पाया गया है।

इस पहाड़ी राज्य के 8.84 प्रतिशत क्षेत्र में प्रतिवर्ष 20-40 टन प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी का कटाव हो रहा है, जिसे वैज्ञानिकों ने गंभीर माना है। इसी तरह प्रदेश के लगभग 32.72 प्रतिशत क्षेत्र में प्रतिवर्ष 40-80 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अत्यंत गंभीर रूप से मिट्टी का कटाव दर्ज किया गया है। वहीं, उत्तराखंड के 6.71 प्रतिशत क्षेत्र में प्रतिवर्ष 15-20 टन प्रति हेक्टेयर की मामूली दर से मिट्टी का कटाव हो रहा है।

बरसात के कारण होने वाले मिट्टी के अपरदन, भूमि संरचना, भौगोलिक गठन, फसल प्रबंधन के तौर-तरीकों और संरक्षण प्रक्रिया को केंद्र में रखकर यह अध्ययन किया गया है। अध्ययन में मिट्टी के नुकसान के आकलन के लिए व्यापक रूप से प्रचलित समीकरण यूनिवर्सल सॉयल लॉस इक्वेशन और भौगोलिक सूचना प्रणाली से प्राप्त आंकड़ों का उपयोग किया गया है।

नागपुर स्थित राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण और भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो और दिल्ली स्थित इसके क्षेत्रीय केंद्र के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया यह अध्ययन शोध पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित किया गया है।


अध्ययनकर्ताओं में शामिल डॉ एस.के. सिंह, डॉ एस.के. महापात्रा, डॉ आर.पी. यादव, डॉ वी.एन. शारदा, डॉ जी.पी. ओबी रेड्डी और रितु नागदेव (बाएं से दाएं)

" मिट्टी का कटाव एक गंभीर चुनौती है, जो उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य के भूमि संसाधनों के क्षरण और राज्य में मौजूद हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए प्रमुख समस्या बनकर उभर सकता है। "

इस अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता डॉ एस.के. महापात्रा के अनुसार, “मिट्टी का कटाव एक गंभीर चुनौती है, जो उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य के भूमि संसाधनों के क्षरण और राज्य में मौजूद हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए प्रमुख समस्या बनकर उभर सकता है।”

इस अध्ययन में देहरादून, उत्तरकाशी, टिहरी गढ़वाल रुद्रप्रयाग, चमोली और बागेश्वर का कुल 4.73 लाख हेक्टयर क्षेत्र मिट्टी के कटाव से गंभीर रूप से प्रभावित पाया गया है, जो उत्तराखंड के क्षेत्रफल के नौ प्रतिशत के बराबर है। जबकि, इन्हीं जिलों में 17.50 लाख हेक्टयर क्षेत्र मिट्टी के कटाव से अत्यंत गंभीर रूप से ग्रस्त पाया गया है, जिसमें राज्य के कुल क्षेत्रफल का लगभग 32 प्रतिशत से अधिक हिस्सा शामिल है।

इसी तरह पौड़ी गढ़वाल, नैनीताल, चंपावत और ऊधम सिंह नगर जिलों के 3.94 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में मध्यम और 3.59 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में मामूली रूप से गंभीर रूप से मिट्टी का कटाव हो रहा है। भूमि के क्षरण से प्रभावित राज्य का 14 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र इन जिलों में शामिल है।

म ृदा-वैज्ञानिकों के मुताबिक, मृदा अपरदन के बारे में गहरी समझ विकसित करने, टिकाऊ कृषि उत्पादकता और जीवन यापन के लिए जमीन के कटाव से होने वाले मिट्टी के नुकसान की मात्रा का मूल्यांकन किया जाना जरूरी है। बरसात और पानी के बहाव से जमीन की सतह का पतली परतों के रूप में निरंतर होने वाले कटाव और भूस्खलन से बड़े पैमाने पर मिट्टी का क्षरण होता है। इससे कृषि भूमि की उत्पादकता में गिरावट होती है। जंगलों की कटाई जैसी मानवीय गतिविधियां भी मिट्टी के कटाव के लिए जिम्मेदार मानी जाती हैं। कमजोर भौगोलिक गठन, भूकंपीय सक्रियता, अधिक बरसात और बादलों के फटने जैसी प्राकृतिक घटनाएं मिट्टी के कटाव का प्रमुख कारण होती हैं।

डॉ महापात्रा के मुताबिक, “हिमालय क्षेत्र में भूस्खलन, भूकंप तथा मिट्टी के कटाव जैसी घटनाएं अक्सर होती रहती हैं। इसलिए इस क्षेत्र में मिट्टी एवं जल संरक्षण के उपायों पर अमल करना बेहद जरूरी है। कृषि क्षेत्रों में मिट्टी के कटाव को कम करने के लिए वानिकी एवं बागवानी जैसी गतिविधियों के जरिये कृषि विविधीकरण पर जोर देना चाहिए। इस तरह के संरक्षण कार्यक्रम मिट्टी के तेजी से हो रहे कटाव को कम करने, संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र को पुनः स्थापित करने और जरूरतमंदों के लिए रोजगार के अवसर पैदा करने में मददगार हो सकते हैं।”

अध्ययनकर्ताओं में डॉ महापात्रा के अलावा डॉ जी.पी. ओबी रेड्डी, रितु नागदेव, डॉ आर.पी. यादव, डॉ एस.के. सिंह और डॉ वी.एन. शारदा शामिल थे। (इंडिया साइंस वायर)