भूस्खलन के खतरे को कम कर सकती है नियमित निगरानी                                                                 

भूस्खलन के कारण सड़क और अलकनंदा घाटी में गिरा मलबा और चट्टानें।

हिमालय की जटिल भौगोलिक बनावट के कारण इस क्षेत्र में भूस्खलन की घटनाएं होती रहती हैं। पिछले साल उत्तराखंड स्थित विष्णुप्रयाग के हाथी पहाड़ में हुए भूस्खलन का अध्ययन करने के बाद वैज्ञानिकों का अनुमान है कि भारी बरसात, भूकंप या फिर मानवीय गतिविधियों के कारण भविष्य में भी इस क्षेत्र में भूस्खलन की घटनाएं हो सकती हैं।

वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद से संबद्ध केंद्रीय भवन अनुसंधान संस्थान, रुड़की के वैज्ञानिक घटनास्थल के सर्वेक्षण और भू-वैज्ञानिक एवं भू-तकनीकी आंकड़ों के आधार पर चट्टानों की स्थिरता का विश्लेषण करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं। अध्ययन के दौरान भूस्खलन से जुड़ी भू-वैज्ञानिक विशिष्टताओं, जैसे- ढलान, विखंडित चट्टानों, मलबे और दरारों को केंद्र में रखकर घटनास्थल का सर्वेक्षण और पत्थर के नमूनों की मजबूती का परीक्षण किया गया है।

अध्ययनकर्ताओं में शामिल वैज्ञानिक डॉ शांतनु सरकार ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “ऋषिकेश से बद्रीनाथ को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग-58 पर स्थित यह इलाका सामरिक रूप से महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ भूस्खलन के प्रति काफी संवेदनशील है। बरसात के मौसम में इस इलाके में भूस्खलन की घटनाएं होने की आशंका अधिक रहती है। टूट-फूट होते रहने के कारण राजमार्ग के बाधित होने और जानमाल के नुकसान का खतरा हमेशा बना रहता है। नियमित निगरानी, सही प्रबंधन और मानवीय गतिविधियों पर लगाम लगाकर इस खतरे को कम किया जा सकता है।”

" बरसात के मौसम में इस इलाके में भूस्खलन की घटनाएं होने की आशंका अधिक रहती है। टूट-फूट होते रहने के कारण राजमार्ग के बाधित होने और जानमाल के नुकसान का खतरा हमेशा बना रहता है। नियमित निगरानी, सही प्रबंधन और मानवीय गतिविधियों पर लगाम लगाकर इस खतरे को कम किया जा सकता है। "

वैज्ञानिकों के अनुसार चमोली से बद्रीनाथ की ओर जाने राजमार्ग के आसपास स्थित यह क्षेत्र अपने कमजोर भौगोलिक गठन, खड़ी ढलान, विखंडित स्थलाकृति, भूकंपीय सक्रियता और अधिक वर्षा के कारण भूस्खलन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। पिछले वर्ष 19 मई को जोशीमठ से करीब आठ किलोमीटर दूर विष्णुप्रयाग में राष्ट्रीय राजमार्ग-58 पर हुए भूस्खलन के कारण करीब 150 मीटर सड़क पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई थी और 15 हजार से अधिक यात्री 24 घंटे से अधिक समय तक वहां फंसे हुए थे।

भू-वैज्ञानिक एवं वर्षा संबंधी आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पहाड़ के ऊपरी भाग में कुछ नमी युक्त हिस्से वैज्ञानिकों को मिले हैं, जिसके आधार पर अनुमान लगाया जा रहा है कि पिछले साल हुए भूस्खलन की मुख्य वजह दरारों के खुलने और उनमें पानी का रिसाव हो सकता है। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार इस पहाड़ में कम से कम तीन ऐसे ढलान क्षेत्र हैं, जो सड़क पर चलने वाले ट्रैफिक के लिए कभी भी खतरा पैदा कर सकते हैं। बरसात के मौसम में यह खतरा अधिक बढ़ सकता है।

चट्टानों के गिरने के कारण विस्तृत क्षेत्र भले ही प्रभावित नहीं होता, पर इसके कारण जानमाल के नुकसान और वाहनों की आवाजाही बाधित होने का खतरा बना रहता है। सीधी ढाल वाले क्षेत्रों में चट्टानों के खिसकने का पता नहीं चल पाने से कई बार चेतावनी जारी करने का समय तक नहीं मिल पाता। ऐसे में निगरानी और सही रखरखाव ही खतरे को कम करने का जरिया हो सकता है।

डॉ सरकार के अनुसार, “भूस्खलन के प्रति संवेदनशील इलाकों में ढलानों पर बिखरे शिलाखंडों को हटाना, रॉक बोल्टिंग के जरिये चट्टानों को स्थिर करने, वायर नेटिंग और चट्टानों को रोकने लिए अवरोधकों का निर्माण कारगार हो सकता है। हालांकि, भूस्खलन के प्रति संवेदनशील क्षेत्र में सुरक्षा उपायों को अमल में लाने से पहले विस्तृत पड़ताल और उसी के अनुसार उपयुक्त इंजीनियरिंग डिजाइन का चयन करना चाहिए।

यह अध्ययन शोध पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित किया गया है। अध्ययनकर्ताओं में डॉ शांतनु सरकार के अलावा कौशिक पंडित, महेश शर्मा और आशीष पिप्पल शामिल थे। (India Science Wire)